Thursday, November 25, 2010

टूटी हुई,जंग लगी......

टूटी हुई,जंग लगी
लोहे की
एक कड़ाही,
लुढ़की पड़ी है
मेरे घर के , पिछले कोने में .
कितनी होली-दिवाली
देख चुकी है ,
बनाए हैं कितने पकवान
वर्षों तक ,
धुल-धुल कर,सुबह-शाम
चमका करती थी,
कभी पूरी ,कभी हलवा
चूल्हे पर ही
 रहती थी .
 नित्य,
नए स्वाद का
निर्माण करती थी ,
तृप्ति के आनंद का
आह्वान,
करती थी.
टूटी हुई,जंग लगी   
लोहे की
एक कड़ाही,
लुढ़की पड़ी है
मेरे घर के, पिछले कोने में........
आते-जाते
कभी-कभी
पड़ जाती है नज़र
उस कोने में,
थम जाता है समय,
सहम जाता है 
मन ,
तैरने लगती है 
हवाओं में, व्यथाओं की 
टीस
और अचानक ,
घूम जाता है मेरी आँखों में,
अपनी 
माँ का चेहरा.

Monday, November 22, 2010

मेरे प्रवासी मित्र......

मेरे प्रवासी मित्र ,
तुम लौट क्यों नहीं आते  ?
तुमने जो बीज बोए थे .....
आम -कटहल के ,
फल दे रहे हैं सालों से .
चढ़ाई थी जो बेलें
मुंडेरों पर ,
कबकी फैल चुकी हैं ,
पूरी छत पर.
शेष होने को है ....
तुम्हारे भरे हुए ,
चिरागों का तेल , रंग
दीवारों पर ,
तस्वीरों की,
धुंधलाने सी लगी है.
तुम्हारे आने के
बदलते हुए,
दिन ,महीने और साल ,
मेरी उंगलिओं की पोरों पर
फिसलते हुए ,
तंग आ चुके हैं.
कोने -कोने में सहेजा हुआ
विश्वास ,
दम तोड़ने लगा है
कमज़ोर पड़ने लगी है,
पतंग की डोर पर
तुम्हारा चढाया माँझा.
तुम्हारी  चिठ्ठियों के
तारीखों की
बढती हुई चुप्पी ,
कैलेंडर के हर पन्ने पर,
हो रही है
छिन्न-भिन्न .
तुम्हारे आस्तित्व पर चढ़ा
स्वांत: सुखाय,
गूंजने लगा है
हज़ारों मील दूर से ........
फिर इस साल .
तुम्हारे समृध्दी की
तहों में ,
खोने लगा है ,
पिता का चेहरा
और
तुम्हारा यथार्थ
डूबने लगा है ,
तुम्हारी माँ के
गीले स्वप्नों में .......
मेरे प्रवासी मित्र ,
तुम लौट क्यों नहीं आते ?                                                       /

Thursday, November 11, 2010

विदेशी भारतीयों के नाम.......

तुम्हें बुलाने को हमने,
सावन से यूँ
बोला था...कि कह देना,
बारिश की बूँदें
गिरतीं हैं,
अपनी छत से होकर
हर दिन ,
तुम जिसे देखते रहते थे,
खिड़की पर बैठे,
हर पल -छिन.
सावन आँखों में
भरा हुआ,
लेकर जबाब यह
आया था, तुम
फव्वारों से उड़ती,
बूंदों  में खोकर,
अपना वह सावन
भूल गए.
मैं जाड़ों की शीत-लहरी को
समझाई थी,
जाकर कहना....कि
बैठ धूप में,
मूंगफली के दानों के संग,
गर्म चाय के
ग्लासों से,
तलहथियों को गरमा जाएँ.
तुमसे मिलकर,
कितने दिन तक,
मुझसे मिलने में
कतराई, फिर बोली थी ...
जब जाड़ों में,
बर्फ़ पड़ती है दिन-रात,
तुम अंदर बैठकर,
उन सफ़ेद खामोशियों को,
कर लेते हो,
आत्मसात और 
कि तुम अब,
शीत -लहरी को ,
नहीं पहचानते .
फिर फागुन को बुलवाई थी
कि जाओ,
याद दिला आओ,
होली के गीत,
सुना आओ, उन मालपूओं की
खुशबू पर,
इत्रों के नाम ,
गिना आओ...
लेकिन तुमसे मिल सका नहीं, 
तुम व्यस्त  थे वहां ,
आसमानी ख़्यालों में ,
ख्वाबों की उड़ानों में ,
परदेश की चालों में.
तुम्हारे सर पर था सवार,
'इस्टर' का सोमवार और 
फिर....आखिरी बार,
हमने,
भेजी थी वसंत .
तितलियों के पंखों पर,
फूलों की खुशबू लेकर कि
बता देना....फूलों के रंग ,
सुना आना कोयल की कूक 
लेकिन....... 
वहां 'स्प्रिंग' के,
बिना खुशबू वाले 
फूलों की पकड़ ,
तुम पर,
सख्त होती गयी ,
'कोलोन' का छिडकाव,
दिन-प्रतिदिन तुम्हें
जकड़ता गया, 
पतझड़ को 'ऑटम' से
बदलकर, तुमने मन को,
बहला लिया,
यहाँ के तीज-त्यौहार,
'क्रिसमस-ट्री' के
सितारों और लट्टूओं  पर
चढ़ा  दिया ......और
फिर  एक दिन.....
कंकरीट   के जंगल ने,
सोंधी मिट्टी की 
कोमलता पर,
ऐसा प्रहार किया कि
अलग हो गए 
तुम्हारे जड़ -मूल 
और बिना कुछ सोचे ,
झट से,
कसकर बांध ली, 
तुमने अपनी मुट्ठी 
क्योंकि...... मुट्ठी में,
तुम्हारा  'ग्रीन -कार्ड 'था .