Sunday, June 27, 2010

एक नीरस.....मुलाकात के लिए.....

एक नीरस
मुलाकात के लिए ,
कुछ उदास चेहरों के
साथ के लिए,
'शॉपिंग- मॉल' का आनंद ,
नई 'पिक्चर' का मज़ा और
लज्ज़तदार खाने का
ज़ायका
कोई क्यों बिगाड़े?
क्यों बिगाड़े
आधी,पौनी ,चौथाई
नपी-तुली,
एक ख़ूबसूरत शाम
या कह लीजिये,
एक टुकड़ा दिन .
कितना 'प्रेशियस' होता है
समय ,
हर जगह नहीं
लुटाया जाता,
यूँ ही नहीं
गंवाया जाता
कि चलो, फ़ोन घुमाकर
कुशल-छेम
ले लें,
सुनिश्चित कार्य-क्रम में
बाधा डालकर,
बातें कर लें और
बेमज़ा शब्दों के,
आदान-प्रदान में
खामखा,
दो-चार कीमती मिनट
कुछ सेकंड,
जाया कर लें .
वो भी तब,जब
स्नेह के बंधन,
गंभीरता के आवरण में,
अपना आस्तित्व
खोते जा रहें हों,
आत्मीयता कि जड़ें,
खाद-पानी के
अभाव में,
सूखने लगी हों और
विवेक.................
भौतिक चकाचौंध से
अभिभूत,
किंककर्तव्यविमूढ़,
वहीँ कहीं सो रहा हो .........

Saturday, June 19, 2010

कभी ये रहा,कभी वो रहा.........

कभी मुंतज़िर चश्में
ज़िगर हमराज़ था,
कभी बेखबर कभी
पुरज़ुनू ये मिजाज़ था,
कभी गुफ़्तगू के हज़ूम तो, कभी
खौफ़-ए-ज़द
कभी बेज़ुबां,
कभी जीत की आमद में मैं,
कभी हार से मैं पस्त था.
कभी शौख -ए-फ़ितरत का नशा,
कभी शाम- ए-ज़श्न ख़ुमार था ,
कभी था हवा का ग़ुबार तो
कभी हौसलों का पहाड़ था.
कभी ज़ुल्मतों के शिक़स्त में
ख़ामोशियों का शिकार था,
कभी थी ख़लिश कभी रहमतें
कभी हमसफ़र का क़रार था.
कभी चश्म-ए-तर की गिरफ़्त में
सरगोशियों का मलाल था,
कभी लम्हा-ए-नायाब में
मैं भर रहा परवाज़ था.
कभी था उसूलों से घिरा
मैं रिवायतों के अजाब में,
कभी था मज़ा कभी बेमज़ा
सूद-ओ- जिया के हिसाब में.
मैं था बुलंदी पर कभी
छूकर ज़मीं जीता रहा,
कभी ये रहा,कभी वो रहा
और जिंदगी चलती रही .