Friday, July 29, 2011

जब कभी तुम्हारी आँखों में.........

जब कभी तुम्हारी
आँखों में,
सावन के बादल डोलेंगे,
मैं भी उस बादल में छुपकर,
उन आँखों में
बस जाउंगी......
या फिर
नैनों के कोरों से,
गिरकर,छूकर
तेरे कपोल,
तेरे अधरों के
कोनों  पर
दो पल रूककर,
तेरी ऊँगली की  
पोरों पर,
सो जाउंगी.......
जब कभी तुम्हारी
आँखों में,
सावन के बादल डोलेंगे.......

जब कभी तुम्हारे
सिरहाने की
खिड़की पर,
सावन की बूँदें आएँगी......
मैं भी
उन बूंदों में रहकर,
दृग के सपने
छलकाऊँगी......
या फिर
झिलमिल लड़ियों के संग,
उनकी लय पर
कुछ-कुछ लिखकर,
वहीँ कहीं
मैं आस-पास,
मीठे मृदु-हास
उड़ाऊँगी, 
जब कभी तुम्हारे 
सिरहाने की
खिड़की पर,
सावन की बूँदें आएँगी......

जब कभी तुम्हारे 
घर -आँगन की 
चौखट पर,
सावन हलचल ले आएगा ......
मैं भी उस हलचल में 
मिलकर 
उन्मुक्त ,मुग्ध हो जाउंगी .......
या फिर
रिमझिम गीतों की धुन ,
तुमको छूकर जब आएँगी.......
मैं मन-तंत्री के तारों पर 
चुपके-चुपके, 
ला-लाकर उन्हें  
बजाऊँगी, 
जब कभी तुम्हारे 
घर,आँगन की 
चौखट पर,
सावन हलचल ले आएगा.......  

Saturday, July 23, 2011

उस अमर-बेल की लता कहाँ........

उस अमर-बेल की
लता कहाँ........
जिनकी कोमल
कलियों को चुन,
पावन-परिणय की
वेला
में,
मैं हार तुम्हें,
पहनाता था.
वह श्वेत, धवल
हिमखंड कहाँ,
जिसकी जगमग
आभा में, मैं
अपलक, अनिमेष,
निःशंकित सा
सौ बार,
तुम्हें नहलाता था.
वह मेघ-माल
है गया कहाँ,
जिसकी श्यामल
तरुणिम छवि में,
विहगों का सुन
कल्लोल........ कभी,
प्रतिपल मैं,
तुम्हें हँसाता था,
है गया कहाँ
मलयज बयार,
जिसकी
मीठी सकुचाहट पर,
द्रुत हरिण गति
पाँवों में भर,
मैं
पास तुम्हारे आता था.

Tuesday, July 12, 2011

उपहार तुम्हारे लिए ........आज......

गुलमोहर की प्रातों से,
रजनीगंधा की
रातों से,
बोझिल पलकों के
सपनों से,
तन्द्रिल अलकों के
कोनों से.
भोंरों के
अलि-चुम्बन से,
दीपशिखा के
कम्पन से,
अमलतास की
साया से,
नीम तले की
छाया से.
मलयज से आती
वातों से,
चाँद दिखे
उन रातों से,
उपहार तुम्हारे लिए
आज,
मृदु मन के
उठते भावों से .

Saturday, July 2, 2011

मन पंख बिना.........

जब रातों की परछाईं पर,
पूनम का चाँद
चमकता है,
उजली किरणों के साये में,
तारों का रूप
दमकता है,
उन नीलम जैसी रातों में,
जब सलिल,सुधा
बरसाती है,
शबनम के मोती झरते हैं
और
चाँद गगन पर
चलता है........
है पंखों का वरदान नहीं
फिर भी मन,
उड़-उड़ जाता है,
कभी तोड़ता है तारे
तो कभी चाँद,
छू लेता है.
जब सुबहों की अरुणाई पर,
सूरज की आँखें
खुलतीं हैं,
जब मणि-माणिक की
चादर पर,
किरणें धीरे से
चलतीं हैं,
उन सुबहों में
अलि गुंजन पर,
मधु का विनिमय
हो जाता है,
मन पंख बिना
तितली बनकर,
बागों में उड़-उड़ जाता है.
जब दिवा-स्वप्न की
लहरों पर,
मन शिथिल कभी
सो जाता है,
बेवख्त   कभी उठता है तो
बेबात 
कभी मुस्काता है,
उन हल्की सी मुस्कानों पर,
आँखों के दीये
जलते हैं,
उन लहरों की हलचल पर 
अपने ,
सपने उड़कर 
चलते हैं,
कभी बादल पर
मंडराता है,
कभी आसमान में 
गाता है
या नव विहान का
हाथ पकड़
मन पंख बिना,
जा सात समंदर पार
तुम्हें,
मिल आता है.