Tuesday, August 28, 2012

फूलों से कहती हूँ.....


तुम्हारी ऊँची-ऊँची 
आसमानी 
उड़ानों के नीचे,
छोटी-छोटी 
मेरी 
रोज़मर्रा कि खुशियाँ 
कुचल जातीं हैं......
उन कुचली हुई 
खुशियों को 
जोड़-जोड़कर,
मिला-मिलIकर,
तुम्हारे 
लम्बे-लम्बे 
प्रवास में,
जब,दिन का कोई 
अंत 
नहीं दीखता है,
मैं 
फूलों से कहती हूँ.....
तू क्यों खिलता है?

Monday, August 13, 2012

क्यूं न निकालूँ....

क्यूं न निकालूँ....
कोई मसला,कोई हल,
कोई सवाल,कोई जबाब,
पुरानी कहानियों के इतिहास से,
बचपन के हास से,
किशोरावस्था की हलचल से,
युवावस्था की कल-कल से .
यादों की सलवटों को,
खींच-तान कर सीधी करूं,
पढूं ,सुनूं ,सुनाऊँ,
नया उत्साह जगाऊँ,
नयी स्फूर्ति लाऊं.
घुमा लाऊँ अपने-आप को, 
किसी पुरानी कविता की
पंक्तियों  में ,
किसी पुराने उपन्यास की 
सूक्तियों में ,
प्रेमचंद के 'गबन'की 
'जालपा' से मिलूँ ,
बच्चन की 'मधुशाला' में 
शब्दों को पियूं .
ननिहाल में.....
आम-लीची से लदे,
पेड़ों पर 
चढ़ जाऊं,
तार,खजूर,नारियल की
ऊँचाई को  
छू आऊँ,
बिना दांत के सिपाहीजी की, 
कुटी हुई सुपारी
खा लूं ,
बड़े-बड़े छापों वाली, 
देहाती साड़ी की 
चुन्नट डालूँ .
धूप में पिघलाकर, 
नारियल का तेल 
लगाऊं,
लकड़ी की डब्बानुमा 
गाड़ी में,
उबड़-खाबड़ रास्तों से 
हो आऊँ.
सुनहले-रूपहले 
पर्चों को, 
लालटेन की रोशनी में 
खोलूँ ,
कंडे की कलम से,
डायरी के पन्नों को 
रंग लूं .
लकड़ी के चूल्हे पर बनी 
रसोई,
फूल-कांसे के बर्तन में 
सजाऊँ,
आज के लिए 
बस इतना ही.....
कल,
कहीं और से 
कुछ और लेकर 
आऊँ. 

Monday, August 6, 2012

तब........

तब........ 
मुठ्ठी में था आकाश,
कभी निकलकर 
आँखों में रहता था,
कभी आस-पास.
फिर......
मुठ्ठी बड़ी हो गई,
आकाश फैलता गया,
मुठ्ठी छोटी पड़ गई,
आँखें,ख्वाबों से भर गई.
इसी बीच 
हमारे शहर के 
ऊँचाईयों की ओट में, 
रहने लगा 
आकाश......
बस ज़रा सा 
रह गया 
आस-पास.