Saturday, December 14, 2013

तथाकथित 'फैशन शो' से निकलकर जो मुझे याद रहा……… (काफी पहले 'कादम्बिनी' में छपी थी )

औंधे मुँह गिर गयी शर्म
पल्लू बाहर रोता था,
ध्वस्त हया की
सिसकी पर, जब
'कैट-वॉक' होता था.…… 
कुछ ऐसे कुछ वैसे
कपड़ों की
ताकत से , शायद........
मंच हिला था,
लज्जा की दीवारों पर,
कितना कीचड़
फैला था........ 
गीत की लय पर वहाँ
आँखों की पुतली
बोलती थी,
धज्जियां
बेवाक फैशन की
चमक-कर,डोलती थी…....
कतरनें
फैशन-परस्ती से
बदन पर,सज रहीं थीं,
थान-दर-थानों के कपड़े
सरसराकर,चल रहे थे .……
पीढ़ियों की सीढ़ियों पर
रूढ़ियाँ थीं
सर झुकाए,
रेशमी पैबंद पर
ख़ामोश थीं,धमनी-शिराएँ........
बत्तियों का था धुआं
और
शोख़ियों का शोर था,
रोशनी के दायरों में,
चल रहा  
एक होड़ था.......
पारदर्शी था कोई,बेखौफ़ था
उनका जुनून,
झिलमिलाती सलवटों पर,
रात ने
खोया सुकून.…… 
थी कोई आंधी चली
या कि कोई,तूफाँ रूका था,
देखता कोई ,कोई
आँखें
झुकाने में लगा था ……। 
नए फैशन की
नुमायश पर नया
नग़मा बजा था,
आँचल का
अभिमान कुचलकर,
'हॉल'
तालियों से गूँजा था........ 

Monday, November 25, 2013

सोलवां साल.......यानि.......

सोलवां साल.......यानि 
एक जादू ,एक आकर्षण,
एक निमंत्रण.....
कुछ अलग सा मिजाज़........
तो मेरी बच्ची,
अब करनी होगी तुम्हें 
अपने ही
कदमों की पहरेदारी 
समझदारी से.....कि
दुनियादारी में 
प्रलोभन कम नहीं.
सशक्त मन से, 
उज्जवल भविष्य का 
आह्वान करना,
शालीनता से,विनम्रता से,
प्रभु का 
ध्यान करना,
कहना.......
तुम्हें विद्या,बुद्धि,विवेक से 
आभूषित के दें,
कहना........
तुम्हें धैर्य से,प्रेम से,विश्वास से 
आलोकित कर दें.........

Saturday, November 23, 2013

जाड़ों में प्रायः
दिख जाते हैं, वृद्ध-दंपत्ति, 
झुकी हुई माँ ,कांपते हुए
पिता.....धूप सेकते हुए.....
कभी 'पार्क'में,कभी
'बालकनी'में,
कभी 'लॉन' में
तो कभी'बरामदों' में.
मोड़-मोड़कर
चढ़ाये हुए 'आस्तीन'
और
खींच-खींचकर
लगाये हुए'पिन' में
दिख जाता है.......वर्षों से
विदेशों में बसे,
उनके धनाढ्य बाल-बच्चों का
भेजा हुआ,
बेहिसाब प्यार .
ऊल-जलूल ,पुराने,शरीर से
कई गुना बड़े-बेढंगे
कपड़ों का
दुःखद सामंजस्य,
सुदूर........किसी देश में
सम्पन्नता की
परतों में
लिपटी हुई नस्ल को,
धिक्कारती.......
ठंढ से निश्चय ही बचा लेती है,
इस पीढ़ी की सामर्थ्य को
संभाल लेती है........लेकिन
कृतघ्नता  के आघात की
वेदना का
क्या......
आपसे अनुरोध है......
इतना ज़रूर कीजियेगा,
कभी किसी देश में
मिल जाये वो नस्ल......तो
इंसानियत का कम-से कम
एक पर्चा,
ज़रूर
पढ़ा दीजियेगा.......... 

Wednesday, November 20, 2013

मेरी मदर इन लॉ कहती थीं……कि अपने ज़माने में वो पापड़ दाल में भिंगोकर खाती थीं ताकि बाहर उनके खाने की आवाज़ सुनायी न दे. सोचती हूँ ,तब की  औरतोँ में  संकोच और लज्जा का   कितना अलग रूप था……

Sunday, November 3, 2013

This book will be an indispensible read for students and scholars of political science and will also be of interest to general readers.

When the Saints Go Marching In’: The Curious Ambivalence of Religious Sadhus in Recent Politics in India 
Rajesh Pradhan

Price : 695.00
ISBN : 978-81-250-5269-2
Pages : 324
Binding : Hardback
Book Size : 140 x 216 mm
Year : 2013
Territorial Rights : World

Monday, October 28, 2013

ज़माना चाहे जितना भी बदल गया हो,लोग-बाग कितने भी 'मॉडर्न' हो गये हों .......लेकिन शादी के बाद, बेटी के विदाई की भावुक कर देनेवाली नाज़ुक घड़ियाँ, जस-की-तस हैं.......वे कभी नहीं बदलेंगी......इसी भाव पर आधारित है ये कविता.......

दर्द का एक दौड़ सा
मन में समाता 
जा रहा है.....और पलकें 
इन दिनों,
तुमसे बिछड़ने की 
करुण सी वेदना में,
भींगने जब-तब लगी है.......
काँपता,नींदों में मन 
और धड़कनें
बढ़ने लगीं हैं,
विदा की घड़ियाँ
सिमटकर
अब हमें....छूने लगी हैं,
मन व्यथित-व्याकुल
समंदर में
लिपटता जा रहा है,
विदा का बादल उमड़
चारो दिशा
मंडरा रहा है.....
इन दिनों तुमसे विलग
होने की
निर्मम कल्पना,
प्रति-पल
विकल करने लगी है.....
और.....आँखों में उदासी
पिघलने
जब-तब लगी है.......

Monday, October 7, 2013

सांस लेता हूँ तो
लिख देती हो 
तुम,
मुस्कुराता हूँ तो  
लिख देती हो 
तुम,
लूं जम्हाई सामने 
ग़ल्ती से जो,
छींक भी आये तो 
लिख देती हो 
तुम.
मैं जगूं,बैठूँ ,
पियूँ ,खाऊँ कि सोऊँ,
चुप रहूँ ,
लिखूँ,पढूँ,
बोलूँ न बोलूँ 
घोलकर स्याही
खड़ी रहती हो 
तुम,
बात कोई हो न हो 
बेबात लिख देती हो 
तुम,
सांस लेता हूँ तो 
लिख देती हो 
तुम.......     

Tuesday, September 24, 2013

नमन उन्हें शत बार......

दिनकर जी के बारे में
जितना लिख दूं
वह कम है,
'रश्मिरथी','कुरुछेत्र'
पढ़ी थी,
अब तक आँखें
नम हैं.
जन-जीवन,ग्रामीण ,
सहज,
कितना गहरा 
स्वाध्याय,
दिए अमूल्य ,अतुल
वैभव
'संस्कृति के चार अध्याय '.
'हारे को हरिनाम ',
'उर्वशी '
पढ़कर नहीं अघाते,
श्रोता हों या वक्ता हों,
हर पंक्ति को
दोहराते.
संसद में रहकर भी
सत्ता,
जिनको नहीं लुभाया,
दिनकर जी को मिला,
पढ़ा जो,
अब तक नहीं
भुलाया.
कृतियों का प्रज्ज्वल प्रकाश,
उत्कर्ष,
कलम का थामे ,
भारत की
गौरव-गाथा में,
राष्ट्र-कवि हैं आगे.
ऋणी रहेगा 'ज्ञानपीठ',
हिंदी का नभ
सम्मानित,
नमन उन्हें शत बार
ह्रदय यह,
बार-बार गौरवान्वित .
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Tuesday, September 17, 2013

1981से 1986 तक .......

1981से 1986 तक सूडान में रहे. वहाँ के लोग अधिकतर अरबी भाषा बोलते थे.इंगलिश भी बहुत कम समझते थे.....तो 'इंगलिश-अरेबिक' किताब पढ़कर बड़ी मेहनत से अरबी शब्द ढूँढती थी,याद करती थी और छोटे-छोटे ,टूटे-फूटे वाक्य बनाती थी.....लेकिन फल ये मिलता था कि कंठस्त वाक्य किसीसे कह तो देती थी पर जो जबाब आता था......कुछ भी नहीं समझते थे.फिर भी एक-दो साल बाद इतना तो आ गया था कि नौकर को डांट सकूँ. नौकर से याद आया.जो मेरे यहाँ काम करता था,उसका नाम 'मूसा' था.एक दिन मुझसे बोला कि मुझे कल छुट्टी चाहिये. मेरे पूछने पर कि क्या काम है,बताया कि कल मेरे पिता की सातवीं शादी है और मुझे गवाह बनना है.( ये सारा सवाल-जबाब अरबी भाष में हो रहा था.....सोचिये मैं कितना ज्यादा सीख गयी थी)  अभी मैं उसकी बात से पूरी तरह संभल भी नहीं पायी थी कि एकाएक पूछ बैठा, मदाम....आपकी कितनी मम्मी है? इस परिस्थिति से सप्रयास खुद को निकालकर इतना ही बोल पायी.....वाहिद.चौंक गया 'मूसा'.....एक मम्मी वाली बात उसे बेहद अस्वाभाविक लग रही थी लेकिन मैं इस विषय पर और कोई बात करना नहीं चाहती थी सो वहीँ पर रोक दी इस बात को.इंडिया आने पर अम्मा को बताये.....हँसते-हँसते सबका बुरा हाल था.

Monday, September 16, 2013

1965 के ज़माने में ......

1965 के ज़माने में शादी के बाद बहु का घर-गृहस्थी जमाने के लिये ,घर की बड़ी-बूढ़ी साथ जाया करती थीं.....सो मेरी सास भी 'सिलिगुड़ी' आ गयीं.नौकर की सहायता से घर सँभालने लगीं.खाली समय में आँख बंद कर 'साधन' करती थीं या माला फेरती थीं.वो छुआ-छूत मानने के कारण चावल-दाल-रोटी खुद बनाती थीं.इसके अलावा भी विभिन्न प्रकार का भोजन बनाने का उन्हें बेहद शौख था.तब पत्थर के कोयले का चूल्हा होता था,जैसे ही आँच धीमी होती थी ऊपर से और कोयला डालना पड़ता था और लोहे की चिमटी से नीचे की बुझी राख को झाड़ना पड़ता था.खैर! तो होता ये था कि बारह बजे तक सारा खाना बनाकर,चूल्हे पर दाल चढ़ा देती थीं हालाँकि तब तक 
'प्रेशर-कुकर' का अविष्कार हो चूका था लेकिन 'प्रेशर-कुकर' के अंदर रबड़ लगा है यह कहकर वो 'कुकर' का इस्तेमाल नहीं करती थीं.बहरहाल चूल्हे पर पतीले में दाल चढ़ जाता था.अब देखिये,मुझसे कहती थीं......तुम दाल देख लेना. अब बताइये सत्रह साल की बच्ची यानि मैं जिसने कभी हाथ से डालकर पानी भी नहीं पीया हो वो दाल क्या देखेगी......क्या समझेगी....तो होता ये था कि मुझे भी नींद आ जाती थी और आँख खुलने पर जब तक रसोई में पहुँचती थी,सारी दाल उफनकर,कुछ चूल्हे पर और कुछ ज़मीन पर फैल चुकी होती थी.दाल का पानी गिर जाने के कारण चूल्हा बुझ जाता था,दाल कच्ची रह जाती थी.....अगर चूल्हा नहीं बुझता था तो दाल जल जाती थी यानि किसी भी हालत में खाने में दाल नहीं रहता था.....लेकिन सबसे ज्यादा आश्चर्य मुझे तब होता था जब दाल की इस दुर्घटना पर मेरी सास कभी कोई शिकायत नहीं करती थीं और नये सिरे से हर रोज़ मुझसे कहती थीं कि दाल को जरा देख लेना.उधर मेरे पति,एक-डेढ़ बजे के करीब ऑफिस से लंच खाने के लिये घर आते थे.यहाँ हर रोज दाल का नया किस्सा लेकिन कभी भी उनके चेहरे पर,उनकी बातों में दाल को लेकर कोई समस्या नहीं दिखती थी.एकदम खुशी-खुशी जो खाना बना रहता था,खाकर 'ऑफिस' चले जाते थे.पता नहीं बार-बार यह प्रक्रिया दोहराये जाने के बाबजूद उन लोगों को मुझपर गुस्सा क्यों नहीं आता था.......कितना धैर्य था उनमें,सोचकर आज भी आश्चर्य होता है.......

अम्मा बाज़ार नहीं जाती थीं......

अम्मा बाज़ार नहीं जाती थीं.....त्योहारों पर बाबुजी थाक-पर थाक साड़ी लेकर घर आते थे और घर ही में पसंद की साड़ी चुनती थीं......क्या ज़माना था.  

अम्मा जमींदार परिवार से थीं.......

अम्मा जमींदार परिवार से थीं.एकलौती संतान होने के कारण नाना-नानी के नहीं रहने पर सारी जिम्मेवारी उन्हीं की हो गयी थी.अभी भी याद है......बचपन में ननिहाल जाने पर उनकी 'प्रजा' झुंड- के- झुंड मिलने आती थी.ज़मीन पर बैठती या फिर खड़ी ही  रहती थी और 'मालिक' या 'सरकार' कहकर संबोधित करती थी. ज्यादा बूढ़े लोग 'बऊआ' या 'बच्ची' कहकर बुलाते थे. कोई आम का 'बयाना' लेकर आता था तो कोई लीची का 'बयाना' लेकर आता था. 'बयाना' मतलब आम-लीची के बगीचे में जाकर,पकने से पहले अंदाजा लगाया जाता था कि पूरे बगीचे का फल कितने का होगा.......उसी आधार पर,पूरे पैसे का कुछ भाग खरीदने वाली 'पार्टी' 'एडवांस'के तौर पर दे जाती थी. यही 'एडवांस ' 'बयाना' कहलाता था. इसके अलावा तम्बाखू ,मिर्चा ,गन्ना ,मकई ,पटुआ (जिससे रस्सी बनायी जाती थी और  डंडियों से कंडे की कलम) इत्यादि की फसलों का लेखा-जोखा होता रहता था.बाहर में सिपाही जी का कमरा था,वे 24/7 वहीँ रहते थे. वहीँ बरामदे में दीवान जी सुबह से शाम तक,लोहे के छोटे से बक्से में बही-खाता ,कलम-दवात वगैरह लेकर बैठे रहते थे. ज़मींदारी प्रथा तो बहुत पहले ही सरकार ने समाप्त कर दी थी जिसका मोआब्ज़ा काफी दिनों तक अम्मा को मिलता रहा लेकिन वहां के पूरे माहौल  में ,लोगों की मानसिकता और तौर-तरीकों में कोई बदलाव नज़र नहीं आता था. जमींदार और रैयत ,आसामी ,प्रजा जो कह लीजिये वाली परम्परा साफ़-साफ़ दिखाई पड़ती थी........और अम्मा के स्वभाव में भी ज़मींदारों वाला कड़कपन सुरक्छित था. 

Tuesday, April 30, 2013

कभी मुंतज़िर चश्में......


कभी मुंतज़िर चश्में
ज़िगर हमराज़ था,
कभी बेखबर कभी
पुरज़ुनू ये मिजाज़ था,
कभी गुफ़्तगू  के हज़ूम तो, कभी
खौफ़-ए-ज़द
कभी बेज़ुबां,
कभी जीत की आमद में मैं,
कभी हार से मैं पस्त था.
कभी शौख -ए-फ़ितरत का नशा, 
कभी शाम- ए-ज़श्न  ख़ुमार था ,
कभी था हवा का ग़ुबार तो
कभी हौसलों का पहाड़ था.
कभी ज़ुल्मतों के शिक़स्त में 
ख़ामोशियों का शिकार था,
कभी थी ख़लिश कभी रहमतें 
कभी हमसफ़र का क़रार था.
कभी चश्म-ए-तर की गिरफ़्त में
सरगोशियों का मलाल था,
कभी लम्हा-ए-नायाब में
मैं  भर रहा परवाज़ था.
कभी  था उसूलों से घिरा
मैं रिवायतों के अजाब में,
कभी था मज़ा कभी बेमज़ा 
सूद-ओ- जिया के हिसाब में.
मैं था बुलंदी पर कभी 
छूकर ज़मीं जीता रहा,
कभी ये रहा,कभी वो रहा 
और जिंदगी चलती रही ......... 
 
  
 

Wednesday, March 20, 2013

नीम के पत्ते यहाँ ........

नीम के पत्ते यहाँ
दिन-रात 
गिरकर,
चैत के आने का हैं 
आह्वान करते,
रात छोटी,दोपहर 
लम्बी ज़रा 
होने लगी है।
पेड़ से इतने गिरे 
पत्ते 
कि  दुबला हो गया है 
नीम 
जो पहले घना था,
टहनियों के बीच से 
दिखने लगा आकाश,    
दुबला हो गया है नीम 
जो पहले घना था।
क्यारियों से फूल पीले 
अब विदा 
होने लगे हैं 
और गुलमोहर पे पत्ते 
अब सुनो,
लगने लगे हैं,
शीत जो लगभग गया था,
मुड़ के वापस 
आ गया है,
विदा का फिर 
स्नेहमय 
स्पर्श देने 
आ गया है।
इन दिनों चिड़ियों का आना 
बढ़ गया है,
घोंसले बनने लगे हैं,
घास, तिनके चोंच में 
दिखने लगे हैं।
पेड़ की हर डाल पर 
लगता कोई मेला 
कि किलकारी यहाँ 
पड़ती सुनायी,
घास पर लगता कि 
पत्तों की कोई 
चादर बिछायी।
हवा में फैली 
मधुर,मीठी,वसंती 
महक 
अब, जाने लगी है,
चैत की चंचल हवा में
चपलता
चलने लगी है।
सूर्य की किरणें
सुबह
जल्दी ज़रा आने लगी हैं,
धूप  की नरमी पे
गर्मी का दखल
बढ़ने लगा है।
शाम होती देर से
कि दोपहर
लम्बी ज़रा होने लगी है ,
रात में कुछ देर तक
अब
चाँद भी रहने लगा है।

Tuesday, February 26, 2013

चाय......

आज सुबह में 
चाय नहीं 
कुछ ठीक बनी थी, 
दूध ज़रा ज्यादा था 
या 
कि चीनी खूब पड़ी थी 
या फिर शायद 
उलझन कोई 
मन में हुई 
खड़ी थी, 
आज सुबह में 
चाय नहीं 
कुछ ठीक बनी थी. 
चाय की पत्ती 
कम थी 
या 
कि रंग नहीं आया था 
या फिर शायद 
नींद लगी थी 
मन कुछ अलसाया था, 
आज सुबह में 
चाय नहीं 
कुछ ठीक बनी थी.

Tuesday, February 12, 2013

सूरज की पहली किरण से........


सूरज की पहली किरण से
नहाकर तुम 
और 
गूँथकर चाँदनी को 
अपने
 बालों में ,मैं 
चलो स्वागत करें ,
ऋतु-वसंत का .......
आसमान की भुजाओं में 
थमा दें ,
पराग की झोली 
और 
दूर-दूर तक उड़ायें ,
मौसम का गुलाल.
रच लें 
हथेलियों पर ,
केशर की पंखुड़ियाँ,
बांध लें 
सांसों में,जवाकुसुम की 
मिठास ,सजा लें 
सपनों में 
गुलमोहर के चटकीले 
रंग ,
बिखेर लें कल्पनाओं में,
जूही की कलियाँ ......कि
 ऋतु-वसंत है .......
सूरज की पहली किरण से 
नहाकर तुम 
और 
गूँथकर चाँदनी को 
अपने 
बालों में, मैं 
चलो स्वागत करें.
हवाओं के आँचल पर 
खोल दें
ख्वाबों के पर ,
तरु-दल के स्पंदन से 
आकांछाओं के
जाल बुनें ,
झूम आयें गुलाब के 
गुच्छों पर,
नर्म पत्तों की 
महक से चलो, कुछ 
बात करें.
आसमानी उजालों में 
सोने की धूप 
छुयें,
मकरंद के पंखों से,
कलियों को 
जगायें....कि
ऋतु-वसंत है.......
सूरज की पहली किरण से 
नहाकर तुम 
और 
गूँथकर चाँदनी को 
अपने 
बालों में, मैं 
चलो स्वागत करें.
  

Monday, February 4, 2013

ऋतुराज वसंत की गलियन में .........

यह कविता लगभग पच्चीस-तीस साल पहले, अपनी बेटियों को जगाने के लिए लिखी थी, हर साल वसंत- ऋतु में ज़रूर मन में घूमने लगती है.......

ऋतुराज वसंत की गलियन में
कोयल  रस-कूक   सुनावत हैं,
अधरों  पर   राग-विहाग लिए
अमरावाली  में,  इठलावट   हैं.
मधु-मदिरा पी, भ्रमरों के दल
कलियों  पर  जा  मंडरावत हैं,
मणि-माल लिए रश्मि-रथ पर
अब   भानु उदय को  आवत हैं . 
लखि   शोभा ऐसी  नैनन   सों
मृदु मन सबके   पुलकावत हैं,
पनघट जागी, जागी  चिड़िया
मेरी      गुड़िया  भी  जागत हैं.

Saturday, January 19, 2013

छः वर्ष के बच्चे के .......हाथों से जब

                 

अपने ' nephew' के नाम.....जो विभिन्न उपलब्धियों को हासिल करते हुए , वाशिंगटन में 'World-bank' के एक
प्रतिष्ठित पद पर आसीन हैं . हाल ही में उनका एक भाषण सुनने को मिला.......          

Sanjay Pradhan: How open data is changing international aid
Sanjay Pradhan is vice president of the World Bank Institute, helping leaders in developing countries learn skills for reform, development and good governance.
यह उसी की प्रतिक्रिया है......काश! कुछ और लोग भी इस 'छोटी सी' पर 'बड़ी बात' से प्रेरणा ले पाते......



छः वर्ष के बच्चे के          
हाथों से जब,
एक पिता 
मिठाई,                          
आधी खाई हुई 
छीनकर,
दूर फेंक देता है,
रिश्वत के रस्ते आयी, 
ज़हरीली है,
ऐसा कुछ 
कह देता है.......
तब 
बाल-सुलभ ,कोमल-मन 
हतप्रभ,
बेहिसाब 
रोता है........पर 
उसी  सुदृढ़ सच्चाई की 
अनुपम मिसाल का 
बल लेकर, 
जीवन-क्रम में,
तुम जैसा बन 
नभ को छूता है.
                            

Monday, January 14, 2013

तुम्हारे साथ बीते वे पल ....

तुम्हारे साथ बीते वे पल ....
मैं कहती उन्हें
ठंढी हवा का
एक झोंका..अगर
जेठ की
दुपहरी होती
पर अगहन-पूस की
शाम में,
ठंढी हवा
शीत-लहरी होती है,
राहत  नहीं पहुँचाती
सूई सी
चुभोती है..इसीलिए
बदलनी होगी
पुरानी मान्यतायें,
पुरानी कल्पनायें
और
कहना होगा..
तुम्हारे साथ बीते वे पल.......
जैसे हल्की सी
आहट हो
गर्म-गर्म हवा की,
दिल-ओ-दिमाग को
सुकून सी पहुँचाती हो.